
दैनिक मूक पत्रिका – रायपुर देखूँ मैं जी भर के तुझे अब,देखो तुम जी भर के मुझे। सूझ रहा है क्या तुझको अब, मुझको तो कुछ न सूझे।। चेहरे पर शबनम की बूँदें, आ गिरी मन के आँगन में। तुम्ही बताओ मुझको अब,शरारत सूझे न तो क्या सूझे।। दर्द सिलने की कोशिश में क्यों,पुराने टांके खुलता जाता। हाथ लगाएँ धागों को जितना, गाँठे अक्सर उलझाता।।
दिल धड़कता तो संभल भी पाता, दवा हकीमी कर पाता। तरकीब बताओ तुम्ही अब,जब तुम धड़को तो क्या सूझे।। साँसे पल बस प्रेम खातिर,कुछ भी न यहॉं ढोने को है। कभी लगता सब पाने को तो, लगता सब खोने को है।। पल में लगता न पाने को तो,लगता न कुछ खोने को है। तुम्ही बुझाओ आओ अब,जीवन की पहेलियाँ न बूझे।। हासिल कहाँ हुआ है सबको, जीवन में सब कुछ यहाँ। ‘काश’ रह जाता कदाचित,’अगर’भी तो नही जाता यहाँ।। चाह न जाती कभी सुधा की,पर पीना पड़ता गरल यहाँ। बूझ-बूझकर आती उलझन, कोई राह सूझाओ तो सूझे।। जो मिला मुझको अब तक, खोने की बेचैनी संग लाई। बेचैनियाँ परे जो साथ रहे, हासिल अब तक न हो पाई।। जीवन-मरण से जो है परे, वो क्या है?जो न मिल पाई। लाख कवायद जद्दोजहद, कोई युक्ति -उपाय नही सूझे।।