*बुचिपुर के महामाया मंदिर मे उमड़ रहे श्रद्धांलुओं की भीड़*
*श्रद्धा और आस्था का केंद्र महामाया धाम बुचिपुर*
*दैनिक मूक पत्रिका बेमेतरा* :- पुरे देश मे शारदीय नवरात्रि पर्व की धूमधाम से मनाई जा रही है l बेमेतरा जिले के सबसे सुप्रसिद्ध मंदिर माँ महामाया धाम बुचिपुर मे नवरात्रि के पहले दिनों से ही श्रद्धांलुओं की भीड़ देखने को मिल रही है l पहले ही दिन से श्रद्धालु हजारों की संख्या मे पहुंचकर पूजा अर्चना कर शक्ति की देवी माँ दुर्गा से आशीर्वाद प्राप्त किया l वर्तमान मे शारदीय नवरात्रि पर्व मे मनोकामना तेल ज्योति कलश 1396 एवं घृत ज्योति कलश 115 और कुल ज्योति 1511 प्रज्जवलित की जा रही है l महामाया समिति व क्षेत्रवासियो द्वारा प्रतिदिन जस गीत के माध्यम से माता सेवा की जा रही है। वही रात्रि में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी हो रहा है। समिति द्वारा भक्तों के लिए पूरे पर्व प्रसादी और भोज भंडारा की व्यवस्था किया गया है l प्रतिदिन भक्तों की बड़ी संख्या मां महामाया के दर्शन के लिए बुचीपुर धाम पहुंच रहे है।
*मंदिर की इतिहास*
हाफ नदी के सुरम्य तट पर बसा ग्राम बुचीपुर जहां आज 450 के रकबे पर 70-75 घर की आबादी हैं। आज से 42 वर्ष पूर्व यहां पर मां महामाया घास-फूस की कुटी में स्थापित थी। आज भव्य मंदिर का निर्माण हो चुका है और इसकी प्रसिद्घि प्रदेश के अलावा अन्य प्रांतों में फैल चुकी है। साथ ही यह धार्मिक पर्यटन स्थल घोषित हो चुकी है। सर्वप्रथम सन, 1980 के चैत्र नवरात्रि पर्व पर इस मंदिर में 15 मनोकामना ज्योति कलश प्रज्ज्वलित हुई थी। मंदिर समिति का निर्माण सन 1981 में हुआ। समिति के प्रथम अध्यक्ष गजाधर प्रसाद पाण्डेय मुंगवाए वाले हुए। सन 1977 में ग्राम बुचीपुर प्राथमिक शाला में एक शिक्षक की नियुक्ति हुई। उन्हें ग्रामीणों ने इस मंदिर से जुड़ने कहा शिक्षक मां महामाया की सेवा में जुट गए जो कि आज इस मंदिर समिति के एक मात्र कर्ताधर्ता है और उन्हीं के सहयोग और माता की कृपा से 21 लाख रुपये की लागत से भव्य मंदिर निर्माण हुआ। सन 2003 से मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ। यह निर्माण पूर्णतः जनसहयोग से किया गया। इस भव्य मंदिर में तीन तल है। प्रथम तल में महालक्ष्मी की मूर्ति स्थापित है। दूसरे तल में मुख्य मंदिर है। जिनमें मां महामाया की मूर्ति स्थापित है। तीसरी मंजिल में मां महासरस्वती की मूर्ति स्थापित की गई है। इस मंदिर में 52 गुंबज है, मंदिर की ऊंचाई 52 फीट चौड़ाई 24 फीट एवं लंबाई 26 फीट है। इसके अतिरिक्त यहां ज्योति कलश कक्ष अलग है। मंदिर समिति द्वारा 10 रुपये में आजीवन सदस्यता प्रदान की जाती है। आजीवन सदस्यों से प्राप्त राशि से प्रथम ज्योति दोनों पर्व में प्रज्ज्वलित होती है। एक वर्ष के लिए 6001 रुपये शुल्क लेकर अखंड ज्योति कलश प्रज्ज्वलित किया जाता है। जो कि सन 1994 से निरंतर जारी है। मंदिर समिति द्वारा निर्धारित शुल्क में तेल राजकीय ज्योति औरघृत राजकीय ज्योति कलश प्रज्जवलित की जाती है l समिति के अध्यक्षओमकार वर्मा ने मां महामाया बुचीपुर की जानकारी देते हुए उपलब्ध ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के बारे में बताया कि अठारहवी शताब्दी में आज से लगभग 160 साल पूर्व ग्राम बुचीपुर में ओंकारपुरी गोस्वामी मालगुजार हुए जिनका मुख्यालय ग्राम पेंड्रीतराई था और यह ग्राम बुचीपुर उनके मालगुजारी के अधीनस्थ जागीरी ग्राम था। वे मां भगवती के उपासक थे। साथ ही संगीत में पारंगत थे, उनके एक आम मुख्तियार थे। जो ग्राम बुचीपुर के मूल निवासी थे। उनका नाम ठाकुर राम वर्मा था। यह दंपत्ति संतान हीन थे। ओंकार पुरी और आममुख्तियार ठाकुर राम वर्मा बस इन्हीं दो महान आत्माओं के त्याग और भक्ति का परिणाम है। महामाया बुचीपुर जो आज जन जन के मानस पटल में उठते बैठते और सोते विद्यमान है। एक बार ठाकुर राम को मालगुजार की हवेली में सोते हुए स्वपन्ना हुआ। वह ग्राम बुचीपुर में कथित हवेली के सामने महामाया की मूर्ति की स्थापना करें और निःसंतान दंपत्ति श्रद्घा के साथ मां महामाया की पूजा अर्चना करें। सुबह आम मुख्तियार ठाकुर राम स्वप्न की बातों को मालगुजार के पास रखा। बस मालगुजार अैार मुख्तियार की आपस में सहमति हुई और तत्काल नवागढ़ जिसकी दूरी ग्राम से लगभग 16 किमी है, जहां तालाब के अंदर मां महामाया की मूर्ति थी को लेने सुंदर मुहुर्त निकालकर दोनों भक्त नवागढ़ आए मूर्ति को ले जाने का एक मात्र साधन उस जमाने में बैलगाड़ी था। पूजा-अर्चना के बाद मूर्ति को गाड़ी में आरुढ किए फिर उनका काफिला ग्राम बुचीपुर के लिए कूच किया। रास्ते में मूर्ति की गाड़ी खड़ी हो जाती थी। वहां उसकी पूजा-अर्चना और बकरे की बली देकर पुनः वह गाड़ी वहां से प्रस्थान करती। कुछ दूर पर फिर रूक जाती तो फिर वहां नारियल तोड़ते हुए बकरे की बलि देते। इस तरह बुचीपुर पहुंचते 720 नारियल और तीन दौरी बकरा ग्राम बुचीपुर में अपने स्थापित होने की जगह में पधारी फिर सुंदर समय में मां महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई। आज आम मुख्तियार को तो कोई संतान नहीं है। परंतु मालगुजार के वंशज आज भी महामाया की पूजा में यथोचित समय देते चले आ रहे है। मूर्ति स्थापना के बाद वर्मा दंपत्ति की वैराग्य हो गया और नित्य सेवा में लीन रहते थे। एक बार गांव के सरहदी गांव कटई में हैजा का प्रकोप फैला तो उस गांव में रह रहे एक बुढ़िया और उसका एकमात्र पुत्र को महामाया का स्मरण हो आया और वह किसी व्यक्ति को बुचीपुर ठाकुर राम के पास भेजी। बात आधी रात की थी। वर्मा दंपत्ति नदी स्नान कर महामाया के आसन में कपाट बंद कर पूजा आराधना किए। इसके बाद वह महामाया को कहा कि मातेश्वरी आप अगर उस बुढ़िया के पुत्र को ले जाओगे तो फिर उस बुढ़िया का जीवन यापन कौन करेगा? और आपके यश का क्या होगा? आपसे मैं प्रार्थना करता हूं कि विधान के मुताबिक आप उस बुढिया को ले जाओ और उसके पुत्र को छोड़ दो तो मेरी लाज और आपका यश बच जाएगा। बाहर खड़ा व्यक्ति अंदर की बाते सुन रहा था, परंतु माता की आवाज केवल वर्मा दंपत्ति को सुनाई पड़ती थी। बस बाहर निकलकर खड़े व्यक्ति को महामाया का भभूत और कुछ प्रसाद दिया और कहा कि इसे मृतक के ऊपर डाल देना। मृतक जिन्दा हो गया और बुढ़िया मर गई। न जाने आज तक ऐसे अनेकानेक घटना नित्य घटते रहते है। जिन्हें विश्वास है लगन है श्रद्घा हैl क्वांर एवं चैत्र पर्व में मनोकामना ज्योति कलश प्रज्ज्वलित करवाते है।